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बंदे में है दम

बलिया का एक और बाग़ी

क्या आप जानते हैं कि 30 साल में 55 लाख हिंदुस्तानियों की जान लेने वाला कौन है ? शायद नहीं। हम बताते हैं आपको लेकिन उससे पहले ये तस्वीरें देखिए। गंगा बेल्ट यानी उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में लोगों के ऐसे चकत्तेदार हाथ और पैर आपको आसानी से नज़र आ जाएंगे। खुरदुरे, छोटे-छोटे गड्ढे वाले दाग़दार हाथ। आप जान कर हैरान रह जाएंगे कि ये कैंसर के निशान हैं। शरीर में फैल चुका कैंसर सबसे अंत में त्वचा पर नज़र आ रहा है।

गांव के गांव में कैंसर से जूझते लोग और मौत का अनवरत सिलसिला आर्सेनिक की देन है।

जी हां, आर्सेनिक जो यूं तो हमेशा से धरती की गहराइयों में दबा हुआ था लेकिन पिछले करीब 35-40 सालों से बाहर निकलने लगा है और उसका बाहर आना इंसानों के लिए काल बन गया है।

इंसानों के इसी दुश्मन से जंग लड़ रहे हैं बलिया के सौरभ सिंह। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में सौरभ सिंह की कहानी के ज़रिये जानते हैं आर्सेनिक के ख़तरे के बारे में।

पत्रकारिता छोड़ आर्सेनिक से जंग

44 साल के सौरभ उत्तर प्रदेश के बलिया के रहने वाले हैं। वही बलिया जिसे हम बाग़ी बलिया के नाम से भी जानते हैं। बलिया की बग़ावत सौरभ के अंदर भी है तभी तो उन्होंने दिल्ली में मीडिया की जमी-जमाई नौकरी छोड़ कर अपने ज़िले लौटने का फ़ैसला किया। दरअसल तब इलाक़े में इंसेफ़्लाइटिस का क़हर बरप रहा था और ये हालात सौरभ को बर्दाश्त नहीं हो रहे थे। लेकिन सौरभ की ये यात्रा मुश्किलों से भरी होने वाली थी। घर से ही विरोध शुरू हो गया कि अच्छी-ख़ासी नौकरी छोड़ कर क्या काम शुरू कर दिया लेकिन सौरभ रुकने वालों में नहीं थे। साल 2004 में वो दिल्ली छोड़ बलिया आ गए।

बलिया और आसपास के इलाक़ों में घूम-घूम कर वो इंसेफ़्लाइटिस की पड़ताल करने लगे लेकिन इसी बीच उन्हें ऐसी बात पता चली जिसने उनकी ज़िंदगी की धारा ही मोड़ दी। सौरभ को पता चला कि गंगा किनारे बसे गांवों में बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हो रही है। लोग मर रहे थे लेकिन कारण का पता नहीं चल रहा था। कोई किसी बीमारी का दावा कर रहा था तो कोई पानी की ख़राबी बता रहा था। डॉक्टरों को भी बीमारी की जड़ का पता नहीं लग पा रहा था। सौरभ ने पड़ताल शुरू की। काफ़ी खोजबीन के बाद समझ में आया कि लोगों की मौत की वजह आर्सेनिक है। सौरभ को वजह पता चल चुकी थी लेकिन अभी भी उनकी जिज्ञासा शांत नहीं हुई। वो इस बारे में और जानकारी जुटाने लगे। इसी दौरान उन्होंने कोलकाता के जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर दीपांकर चक्रवर्ती की आर्सेनिक पर लिखी एक रिपोर्ट पढ़ी। बस फ़िर क्या था। सौरभ कोलकाता रवाना हो गए। प्रोफेसर दीपांकर चक्रवर्ती से ना केवल मुलाक़ात की बल्कि आर्सेनिक के बारे में पूरी जानकारी हासिल की। अब उन्हें पता चल चुका था कि ये आर्सेनिक कितनी विकराल समस्या है जिसके बारे में ना तो लोगों को पता है और ना ही सरकारों को। प्रोफेस दीपांकर चक्रवर्ती के मार्गदर्शन पर ही सौरभ ने आर्सेनिक के ख़िलाफ़ बिगुल फूंक दिया। उन्होंने अपने ही जैसे कुछ युवा और जज़्बे वाले साथी तैयार किये और गांव-गांव जाकर आर्सेनिक से पीड़ित लोगों की पहचान करने लगे। लोगों को आर्सेनिक के ख़तरे के बारे में जागरूक करने लगे।

30 साल में 55 लाख लोगों की मौत

सौरभ ने काम तो शुरू कर दिया लेकिन ये इतना आसान होने वाला नहीं था। सौरभ और उनकी टीम ने यूपी के गंगा बेल्ट में बड़े पैमाने पर आर्सेनिक पीड़ितों की पहचान कर ली थी लेकिन जब उन्होंने अपनी रिपोर्ट प्रशासन और सरकार को भेजी तो रिपोर्ट ख़ारिज़ कर दी गई। सरकार ने पानी में आर्सेनिक की ख़तरनाक मात्रा के होने से साफ़ इनकार कर दिया। अब सौरभ के सामने नई समस्या थी। सरकारें मानने के लिए तैयार नहीं थी और गांव-गांव में मरीज़ों की संख्या बढ़ती जा रही थी। सौरभ ने एक के बाद एक कर कई रिपोर्ट तैयार की, सरकार से लंबी लड़ाई लड़ी। सौरभ को इसके लिए कई बार अदालत से लेकर मानवाधिकार आयोग तक के दरवाज़े खटखटाने पड़े तब जाकर तब जाकर सरकार ने स्वीकार किया कि आर्सेनिक की समस्या गंभीर है। 50-60 हज़ार करोड़ की परियोजनाएं बनाई गईं। देश भर में 2200 जांच केंद्र खोले गए। सौरभ को उम्मीद जगी कि अब कुछ काम होंगे जिससे लोगों को आर्सेनिक से मुक्ति मिल पाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। सौरभ के पास सरकारी एजेंसियों से लेकर कई रिसर्चर पहुंचने लगे। सब सौरभ से उनकी पड़ताल, उनके रिसर्च पेपर और आंकड़े लेते और फ़िर अपने पेपर छपवा कर खानापूर्ति कर लेते। दिखावे के लिए थोड़े बहुत काम भी हुए। कहीं पानी साफ़ करने के यंत्र लगाए गए, कहीं हैंडपंप पर ख़तरे का लाल निशान लगा कर ज़िम्मेदारी पूरी कर ली गई। सरकारों ने भी ज़्यादातर काम आउटसोर्स कर फ़ाइलें आगे बढ़ा दी। लेकिन इससे लोगों की मौत का सिलसिला नहीं थमा। सौरभ बताते हैं कि पानी साफ़ करने वाले यंत्र कारगर नहीं हैं। आर्सेनिक को पानी से अलग करने के नाम पर यंत्र बनाकर बस भ्रम फैलाया जा रहा है।
सौरभ की रिपोर्ट बताती है कि आर्सेनिक की वजह से पिछले 30 साल में 55 लाख लोगों की जान गई है। क्या ये किसी नरसंहार से कम है ?

क़दम-क़दम पर मुश्किलों का पहाड़

धीरे-धीरे सौरभ ने अपने काम का दायरा बढ़ा लिया। उत्तर प्रदेश के गंगा बेल्ट के साथ-साथ वो बिहार के कई इलाक़ों में भी काम करने लगे थे। वो लंबे समय तक बिहार के भोजपुर में रहे और आर्सेनिक के प्रभाव पर रिपोर्ट तैयार की। लेकिन अब नई समस्याओं ने सौरभ को घेरना शुरू कर दिया। सौरभ की रिपोर्ट हंगामा मचा देती थी और कोई भी अधिकारी या जनप्रतिनिधि इसके लिए तैयार नहीं था। सौरभ को कभी सीधे तो कभी दूसरे तरीक़ों से धमकाया जाने लगा। सौरभ के दफ़्तरों में आकर लोग काम रोकने की धमकी देने लगे। सौरभ उन्हें समझाते कि वो किसी के ख़िलाफ़ नहीं रिपोर्ट बना रहे हैं वो तो आर्सेनिक की समस्या बता रहे हैं लेकिन ना तो अधिकारियों ने उनकी सुनी और ना ही जनप्रतिनिधियों ने। इंजीनियर और कॉन्ट्रैक्टर लॉबी की धमकियां इतनी बढ़ गई कि 2012 में सौरभ को इनसे बचने के लिए अपना ऑफ़िस वाराणसी से सारनाथ ले जाना पड़ा।

आर्सेनिक की समस्या और उसका दायरा

आर्सेनिक एक ऐसा रासायनिक तत्व है जो ज़मीन के बहुत नीचे मिलता है। जब हम कुएं-तालाबों और नदियों का पानी इस्तेमाल करते थे तब कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन जब हमने बोरिंग कर ज़मीन के अंदर से पानी निकालना शुरू किया परेशानी वहां से खड़ी होनी शुरू हुई। बड़े पैमाने पर भू-जल के दोहन से ग्राउंड वाटर लेवल तेज़ी से गिरने लगा। पानी जितना नीचे जाने लगा बोरिंग भी उतनी नीचे की जाने लगी और आख़िरकार हमने आर्सेनिक की परत को छेड़ दिया। अब बोरिंग के पानी में मिलकर आर्सेनिक भी हमारे अंदर पहुंचने लगा। नतीजा गंभीर हुआ। लोग कैंसर जैसी गंभीर बीमारी का शिकार होने लगे और बड़े पैमाने पर जान जाने लगी।

आर्सेनिक की समस्या पूरे गंगा बेल्ट में है। हरिद्वार से लेकर गंगा सागर तक। इसमें असम से भी कई इलाक़े शामिल हैं। आसपास के देशों जैसे बांग्लादेश, चीन, वियतनाम में भी आर्सेनिक की समस्या गंभीर हो चुकी है। सौरभ इन देशों में भी जाकर आर्सेनिक पर काम कर चुके हैं।

सौरभ ने कभी हार नहीं मानी

धमकियां झेलीं, विरोध झेला, सरकारी सिस्टम की उपेक्षा झेली लेकिन सौरभ ने हार नहीं मानी। वो बताते हैं कि देश में आर्सेनिक पर पहला काम उन्होंने किया है। उनकी जंग की वजह से ही आर्सेनिक पर सरकारों की नींद टूटी। सरकारी पानी की सप्लाई के तरीक़ों से भी वो संतुष्ट नहीं हैं। वो बताते हैं कि इस प्रणाली से भी लोगों तक अच्छा पानी नहीं पहुंच रहा है। वो चाहते हैं कि सरकारें भू-जल दोहन को बंद करे और लोगों को साफ़ और सुरक्षित पानी मुहैया कराए।

सौरभ का संघर्ष जारी है। आर्सेनिक के ख़िलाफ़, लचर और भ्रष्ट सिस्टम के ख़िलाफ़। इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट सौरभ और उनकी टीम को उनके जज़्बे के लिए सलाम करता है।