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धरती से

भाग्य की रेखाओं को खुद बनाती “भाग्यश्री”

लड़कियां आंगन से निकल कर अंतरिक्ष तक पहुंच गयी हैं तो श्मशान में उनका आना क्यों मना है? ये सवाल पूछ रही हैं हमारी आज की सामाजिक योद्धा भाग्यश्री खरखड़िया। यही हैं हमारी आज की कहानी की नायिका।
आइये जानते हैं कौन है भाग्यश्री और क्या है उनका श्मशान से नाता…

ISP ब्यूरो

मानवता को परिभाषित करती एक कोशिश

सुख के सब साथी, दुख में न कोय… जीवन के इस कटु सत्य को तो हम सभी जानते हैं लेकिन, कई लोग ऐसे भी हैं जो लोगों का साथ इसी दुख में निभाते हैं, भले ही सुख के वक़्त में वो उन्हें पहचानते तक ना हो। पढ़ने में अजीब लग रही ये बात भाग्यश्री की सच्चाई है। भाग्यश्री, 31 साल की युवा लड़की जो मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में अपने परिवार के साथ रहती हैं। भाग्यश्री एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। बचपन से ही समाज की सेवा करने का जज़्बा उनके रक्त में रचा-बसा है। भाग्यश्री समाज की मदद उस वक़्त करती हैं जब व्यक्ति अपने जीवन की अंतिम यात्रा के लिए निकल चुका होता है।  ऐसी मसीहा हैं जो लावारिस लाशों का ससम्मान अंतिम संस्कार करती हैं। भाग्यश्री खरखड़िया का जीवन निचली बस्ती में बीता है। इंदौर की श्रमिक बस्ती लाला का बगीचा में उनका जन्म हुआ। उनके पिता ब्रजमोहन एक मजदूर हैं और पति नवीन खरखड़िया रेलवे में चतुर्थ वर्ग के कर्मचारी। भाग्यश्री अपनी बस्ती और वहां के माहौल को जब बयां करती हैं तो उनकी बातों में दर्द साफ़ नज़र आता है। बस्ती के पुरुषों का नशा करना और फ़िर घर की महिलाओं को प्रताड़ित करना उन्हें बचपन से ही टीस देता था। भाग्यश्री इस कीचड़ में कमल की तरह खिली। उनके पिता ब्रजमोहन लुदितिया ने अपने पांचों बच्चों को बहुत अच्छी परवरिश दी। सरकारी स्कूल से पढ़ी भाग्यश्री ने विक्रम विश्वविद्यालय से आर्कोलॉजी में पीएचडी कर रही हैं।

छोटी उम्र से जनसेवा की भावना

भाग्यश्री बचपन से ही लोगों की मदद के लिए तत्पर रहती थी। बस्ती में महिलाओं पर अत्याचार करने वाले पुरुषों के ख़िलाफ़ वो महिलाओं को उनके हक़ बताती थीं। उनके 17 साल के होने तक देश में राइट टू एजुकेशन यानी कि शिक्षा का अधिकार कानून आ गया और उन्होंने अपनी ही बस्ती के 8 से 10 बच्चों का सीबीएससी के स्कूलों में दाखिला करवा दिया। भाग्यश्री मानती हैं कि समाज सेवा के लिए पैसा नहीं जज़्बा मायने रखता है। वो तो बिना पैसे के बस जानकारी और अपने मन की हिम्मत से ही सालों से लोगों की मदद कर रही हैं।

2016 से नई शुरुआत

भाग्यश्री के इस काम को नई दिशा 2016 में तब मिली जब उनकी मुलाक़ात समाजसेवी अमरजीत सिंह सूदन से हुई। सूदन कई तरह के कामों से जुड़े थे। उनके साथ भाग्यश्री ने 5 साल तक काम किया। इस दौरान उन्होंने वरिष्ठ नागरिकों के लिए बनी पुलिस पंचायत में काम किया। ज़रुरतमंद गर्भवती महिलाओं को अस्पताल तक पहुंचाने का काम किया। इन्हीं सबके साथ एक और नेक काम की शुरुआत हुई। लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार। सूदन के साथ-साथ भाग्यश्री ने भी श्मशान घाट जाना भी शुरु किया। भाग्यश्री वहां अंतिम संस्कार के कामों में मदद करती थीं। जब भाग्यश्री पहली बार श्मशान गई थी तो उन्होंने वहां से अपने पिता को फ़ोन किया था। उनके पिता की फ़ोन पर कही बात भाग्यश्री को आज भी याद है। पिता ने कहा था ‘ईश्वर को महसूस करने का सबसे अच्छा स्थान श्मशान ही है।‘ बस फ़िर क्या था, भाग्यश्री इसमें पूरी लगन के साथ जुट गईं।

वो बताती हैं कि कई बार लोग हैरत में पड़ जाते थे, सवाल करते, लेकिन उन्होंने अपना काम जारी रखा।

बड़ी ज़िम्मेदारी देकर विदा हुए सूदन

फ़िर ज़िंदगी ने एक और पन्ना पलटा। कोरोना काल में अमरजीत सूदन का निधन हो गया। भाग्यश्री कहती हैं कि वो कहते थे कि ‘मैं तेरे ज़रिये ज़िंदा रह सकता हूं।‘ उनके यही शब्द भाग्यश्री को आगे का रास्ता बता गए।

इसके बाद लावारिश शवों के अंतिम संस्कार के काम को भाग्यश्री ने पूरी तरह अपने हाथों में ले लिया। शवों को श्मशान तक लाना, पूरे विधि-विधान से उनका दाह संस्कार करना, हर काम वो ख़ुद कर रही हैं। और इसमें उनके पति ने उनका पूरा साथ दिया। अब तक वो सैकड़ों लावारिश शवों का दाह-संस्कार कर चुकी हैं। वो बताती हैं कि इसमें पुलिस प्रशासन और श्माशान घाट प्रबंधन ने हमेशा उनकी मदद की है। दाह-संस्कार का ख़र्च वो ख़ुद उठाती हैं।

बेसहारों का सहारा है भाग्यश्री

इसके अलावा भाग्यश्री बेसहारा बुज़ुर्गों और बच्चों की भी सहारा बन चुकी हैं। उनके इलाज से लेकर उनके पुनर्वास तक का पूरा इंतज़ाम करती हैं। पिछले 7 सालों से लगातार जनसेवा में जुटी भाग्यश्री को कई सामाजिक संस्थाओं, मीडिया संस्थानों और प्रशासन ने सम्मानित भी किया है।

भगवान पर यकीन रखने वाली भाग्यश्री कहती हैं कि वो सबसे बड़ा प्लानर है। भगवान ने ही उन्हें इस काम को करने के लिए भेजा है। इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट, मानवता की सेवा कर रहीं भाग्यश्री की तपस्या को सलाम करता है।

ये कहानी हमें इंदौर से राज बेंद्रे ने भेजी है