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धरती से

वचन गौरैया के लिए

आज हम गौरैया को बचाने का अभियान चला रहे हैं। सरकारें गौरैया दिवस मना कर गौरैया संरक्षण के उपाय कर रही है। जो चिरैया हमारे घर आंगन में फुर्र-फुर्र कर उड़ा करती थी, दिन-रात चहकती रहती थी उसे फिर से बुलाने की कोशिश कर रहे हैं। कई संगठन और कई लोग अपने स्तर पर भी इस काम में जुटे हुए हैं। आज हम जिस परिवार की बात कर रहे हैं वो अपने आप में गौरैया संरक्षण के क्षेत्र में एक आंदोलन है। ये कहानी है बिजनौर के शेख परिवार की।

एक हवेली में 3 हज़ार से ज़्यादा गौरैया
बिजनौर का एक इलाक़ा है स्योहारा। यहां के मोहल्ला शेखनान में एक पुरानी हवेली है। पहले तो ये हवेली शेख की हवेली के नाम से जानी जाती थी लेकिन पिछले कई सालों से इसे गौरैया वाली हवेली कहा जाता है। इस हवेली के परिसर में घुसते ही आपको एक साथ हज़ारों गौरैया नज़र आ जाएंगी। यहां से वहां उड़ते हुए, फुदकते हुए, चहचहाते हुए। 300 साल पुरानी इस हवेली के कोने-कोने में गौरैया ने अपना ठिकाना बनाया हुआ है। पेड़ों, झाड़ियों से लेकर रोशनदानों और छतों को सहारा देने के लिए लगाई गई लकड़ियों की बीम में भी गौरैया के घरौंदे हैं। यहां आने वाला हर शख़्स एक साथ इतनी गौरैया को देख कर हैरान रह जाता है।

पुश्तैनी रिवाज़ है गौरैया संरक्षण
शेख वाली हवेली कहें या गौरैया वाली, फ़िलहाल इस हवेली के मालिक हैं जमाल शेख। जमाल को ये हवेली अपने पिता अक़बर हुसैन शेख से विरासत में मिली है। अक़बर हुसैन को ये हवेली उनके पुरखों से मिली थी। 300 साल पुरानी इस हवेली के हर हिस्से में गौरैयां रहती हैं। खुली हवेली, खुला बड़ा आंगन, पेड़-पौधे और सबसे ज़्यादा सुरक्षित माहौल। ऐसा माहौल मिला तो गौरैया का कुनबा बड़ा होता गया। सौ-पचास से धीरे-धीरे ये हज़ारों में बदल गईं और अब तो ये 3000 के क़रीब हैं। अक़बर ने बहुत कम उम्र से इन गौरैयां को अपने घर में बसते-रहते देखा था। ये हज़ारों गौरैया अक़बर के परिवार का ही एक हिस्सा बन चुकी थीं। वो ना केवल ख़ुद इन नन्हें परिंदों की देखभाल किया करते थे बल्कि अपने परिवार को भी ये करना सिखाते थे। दाना-पानी देना इनका रोज़ का काम था। गौरैयां बिना किसी तरह के ख़ौफ़ के उनके साथ रहा करती थी। लेकिन धीरे-धीरे बढ़ते कंक्रीट के जंगल और पर्यावरण में आने वाले बदलाव ने गौरैयां पर बहुत तेज़ी से असर दिखाना शुरू कर दिया। ये अक़बर हुसैन को नज़र आने लगा। इसी आशंका को देखते हुए अक़बर ने अपने स्तर पर कोशिशें शुरू कर दी। उन्होंने अपने आंगन में झाड़नुमा पेड़-पौधे ज़्यादा लगाये जिनमें गौरैया अपना घोंसला बनाती हैं। इनमें नींबू, अमरूद, अनार जैसे पेड़ थे। लेकिन ये काफ़ी नहीं थे। उन्होंने अपने बेटे को गौरैयां संरक्षण से जोड़ा। घर के बच्चे भी इन परिंदों को अपना साथी, अपना परिवारवाला ही मानने लगे। साल 1999 में जब अक़बर हुसैन ने अपनी इस पुश्तैनी संपत्ति को अपने बेटे जमाल शेख के नाम करते समय अक़बर हुसैन ने कहा कि अब से ये हवेली भी तेरी और गौरैया भी तेरी।

निभा रहे हैं पिता को किया वादा
जमाल शेख ने अपने पिता को किया वादा ख़ूब निभा रहे हैं। वो जितनी शिद्दत से अपनी पुश्तैनी हवेली की देखरेख कर रहे हैं उतने ही प्यार से वो इन गौरैयां को भी पाल रहे हैं। हवेली की मरम्मत के दौरान वो इस बात का पूरा ख़्याल रखते हैं कि मरम्मत की वजह से गौरैया का आशियाना ना टूटे। पिछले 24 साल से वो रोज़ सुबह साढ़े पांच बजे ही इन परिंदों के लिए दाने डालते हैं। ठंड के मौसम में बाजरा और गेहूं तो गर्मी में टूटे चावल। वो इस बात की पूरी कोशिश करते हैं कि अगर काम से जाना हो तो वो दाने डाल कर ही जाएं। अगर वो ख़ुद कहीं बाहर जाते हैं तो परिवार का कोई दूसरा सदस्य दाने डालता है और अगर पूरा परिवार कहीं बाहर जाता है तो वो किसी ना किसी को इसकी ज़िम्मेदारी देकर जाते हैं। गौरैयां के लिए ना सिर्फ़ दानों का इंतज़ाम किया जाता है बल्कि हवेली में बाहर रात के वक़्त लाइट भी बंद कर दी जाती है। रात के समय रोशनी से इन पक्षियों को कई तरह की दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है। नींद में खलल इन पक्षियों की सेहत को बिगाड़ देता है। इसलिए अक़बर हुसैन के समय से ही हवेली के बाहरी हिस्सों की लाइट रात के समय बंद कर दी जाती है।

वन विभाग और पर्यावरणविद् ही नहीं वो तमाम लोग जो गौरैया वाली हवेली के बारे में जानते-सुनते हैं वो तारीफ़ किये बिना नहीं रहते। वाकई बिजनौर का ये शेख परिवार गौरैया संरक्षण की दिशा में एक मिसाल है।