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‘रेशम’ से उम्मीदों की रोशनी

ना हुनर की कमी है, ना हौसले की, बस एक मौक़ा चाहिए। बिहार के सीमांचल क्षेत्र की महिलाओं ने साबित कर दिखाया है कि भले ही उन्हें मौक़ा मिलने में देर हुई हो, लेकिन कुछ कर दिखाने का उनका जज़्बा कम नहीं हुआ है। कोसी और सीमांचल के सात ज़िलों की महिलाएं अब देश ही नहीं विदेश में भी अपने मलबरी सिल्क प्रोडक्ट से धूम मचाने को तैयार हैं। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में कहानी सीमांचल की नारी शक्ति की।

जीविका दीदियां अब करेंगी सिल्क ट्रेडिंग

कोसी क्षेत्र की महिलाएं अब एक नया मुक़ाम हासिल करने जा रही हैं। सरकारी प्रोजेक्ट जीविका से जुड़ी ये महिलाएं मलबरी सिल्क से तैयार वस्त्रों की ट्रेडिंग करने जा रही हैं। ये महिलाएं कौशिकी महिला मलबरी सिल्क प्रोड्यूसर कंपनी के ज़रिए सिल्क उत्पादों की ट्रेडिंग करेंगी। ये कारोबार ना केवल इन महिलाओं के लिए बल्कि पूरे इलाक़े के विकास में बड़ी भूमिका निभाएगा।

मलबरी सिल्क ट्रेडिंग से पूर्णिया के साथ-साथ कटिहार, किशनगंज, अररिया, सहरसा, मधेपुरा और सुपौल ज़िले के 7 हज़ार परिवारों को जोड़ा जा रहा है। यानी मलबरी सिल्क उद्योग का फ़ायदा इन 7 ज़िलों को सीधे तौर पर मिलेगा।

महिलाओं के हाथ कंपनी की कमान

इस प्रोजेक्ट की ख़ास बात ये है कि इससे जुड़ी महिलाएं सिर्फ़ कंपनी में ट्रेडिंग ही नहीं करेंगी वो इस कंपनी को पूरी तरह से संभालेंगी भी। कंपनी के 10 सदस्यों वाले बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर में सभी महिलाएं शामिल हैं। इनमें 5 महिलाएं पूर्णियां की रहने वाली हैं। इसके साथ ही कंपनी में 1000 सामान्य शेयर होल्डर भी हैं। इसमें 500 महिलाएं पूर्णियां की हैं जबकि बाकी दूसरे ज़िलों की।

नूतन देवी कंपनी की बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर में शामिल हैं। धमदाहा की रहने वाली नूतन बताती हैं कि साल 2015-16 में यहां शहतूत की खेती शुरू की गई थी लेकिन लोगों को इसके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। तब किसान केवल ककून उत्पादन कर उसे कारोबारियों को बेच दिया करते थे। ख़रीदार ज़्यादातर बंगाल से आते थे। इससे किसानों को थोड़ा बहुत ही फ़ायदा मिल पाता था लेकिन जैसे-जैसे इसके बारे में जानकारी मिलती गई किसानों ने ककून से धागा तैयार कराना शुरू कर दिया। हालांकि तब भी मशीनों की अनउपलब्धता की वजह से धागा निकालने के लिए बंगाल ही जाना पड़ता था। कई किसानों ने धागे से भागलपुर और बांका के साथ-साथ बंगाल के मालदा में साड़ी बनवानी शुरू कर दी। साड़ी को बाज़ार ने पसंद किया और फ़िर मांग बढ़ती चली गई।

पूर्णिया को सिल्क सिटी बनाने की कोशिश

मलबरी यानी शहतूत। पूर्णिया और आसपास के इलाक़ों में क़रीब 30-35साल पहले शहतूत की बहुतायत में खेती की जाती थी। शहतूत के पत्तों पर सिल्क के कीड़े पाले जाते थे और फ़िर सिल्क तैयार होता था। लेकिन सरकारी उपेक्षा की वजह से ये उद्योग ठप हो गया था। अब एक बार फ़िर नए सिरे से इसे परवान चढ़ाने की कोशिश की जा रही है। जीविका प्रोजेक्ट में इसे शामिल कर महिलाओं को इससे जोड़ा गया है। एक तरफ़ ये प्रोजेक्ट महिलाओं को रोज़गार दे रहा है, उन्हें आत्मनिर्भर बना रहा है तो दूसरी तरफ़ सिल्क का बढ़ता उत्पादन ज़िले के विकास में बड़ी भूमिका निभा रहा है।

पूर्णिया के पूर्णिया पूर्व, धमधाहा, जलालगढ़, कसबा में बड़े पैमाने पर शहतूत की खेती की जा रही है। कुल ज़मीन की बात करें तो ये 373.5 एकड़ है। क़रीब आठ सौ किसान शहतूत की खेती से जुड़े हुए हैं। राज्य सरकार ने 19.64 करोड़ की परियोजना से इस उद्योग में जान फूंक दी है। इसकी मदद से अब कई मशीनरी स्थापित की गई हैं जिससे सिल्क के रेशे निकालने में सुविधा हो रही है।

आदिवासी समुदाय की महिलाओं को नई दिशा

किशनगंज में मलबरी सिल्क उद्योग से आदिवासी महिलाओं को जोड़ा गया है। क़रीब 300 महिलाएं ककून से धागा तैयार कर रही हैं। ख़ास बात ये है कि इस काम से पहले ये महिलाएं अवैध शराब के धंधे से जुड़ीं थी। शराब की तस्करी और देसी शराब बनाने का काम कर रही थीं। लेकिन जीविका प्रोजेक्ट के ज़रिये इन महिलाओं को समाज की मुख्य धारा में लाया गया और अब इसका शानदार असर नज़र आ रहा है।

कई तरह के बन रहे हैं उत्पाद

मलबरी सिल्क से साड़ियां, शॉल, कपड़े और हैंडीक्राफ्ट के सामान तैयार किये जा रहे हैं। क्वालिटी अच्छी होने की वजह से लोग इसे ख़ूब पसंद भी कर रहे हैं। इस काम से ज़्यादातर महिलाओं को जोड़ा गया है। कई व्यापार मेलों में इन महिलाओं ने अपने स्टॉल भी लगाए हैं जिसे काफ़ी पसंद किया गया। मलबरी सिल्क प्रोजेक्ट और उससे जुड़ी महिलाओं के काम की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सराहना कर चुके हैं। उम्मीद है कोसी अंचल की ये नारी शक्ति बाढ़ प्रभावित इस इलाक़े में विकास की एक नई रोशनी फैलाएंगी।

ये कहानी हमें पूर्णिया से बासु मित्र जी ने भेजी है।