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बंदे में है दम

माधवी को मेहनत से मिला मुक़ाम

एक तरफ़ महिलाएं फ़ाइटर प्लेन उड़ा रहीं हैं, अंतरिक्ष में कामयाबी का परचम लहरा रही हैं, बिजनेस में एक से बढ़ कर एक कंपनी का नेतृत्व कर रही हैं दूसरी तरफ़ अभी भी देश के एक बड़े हिस्से में महिलाओं को घर की दहलीज में ही रहना पड़ता है। घर की आमदनी का दारोमदार पुरुष पर और गृहस्थी संभालने का काम महिलाओं के जिम्मे रहता है। लेकिन ऐसा नहीं है कि ये महिलाएं आगे नहीं बढ़ सकतीं। घर की चाहरदीवारी से बाहर अपने पंख नहीं फैला सकतीं। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट एक ऐसी ही कहानी लेकर आया है। ये कहानी एक महिला की है जिसे ज़िंदगी ने उस मुक़ाम पर ला खड़ा किया जहां कई लोग अपना हौसला खो बैठते हैं लेकिन इस शख़्सियत ने उस जगह से एक नई शुरुआत की और गुमनामी के अंधेरे से निकल कर अपनी एक पहचान बनाई। आज की कहानी की नायिका हैं माधवी पाल की।

झारखंड की पहली महिला मूर्तिकार माधवी

रांची में रहने वाली माधवी को झारखंड की पहली महिला मूर्तिकार के रूप में जाना जाता है। आम तौर पर मूर्तिकार पुरुष ही होते हैं लेकिन पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में माधवी ने अपनी लगन, अपनी मेहनत से अपना मुक़ाम हासिल किया है।

लेकिन ऐसा नहीं है कि माधवी शुरुआत से मूर्तियां बनाया करती थीं। उनके पति बाबू लाल नामी मूर्तिकार थे। ना केवल रांची बल्कि कई आस-पास के ज़िलों से भी उनके पास मूर्तियां बनवाने लोग आया करते थे। लोग उन्हें बाबू दा के नाम से जानते थे। उनके साथ कारीगरों की पूरी टीम थी। एक साथ कई मूर्तियों पर काम होता था। लक्ष्मी पूजा, दुर्गा पूजा, काली पूजा, सरस्वती पूजा, विश्वकर्मा पूजा। एक से बढ़ कर एक मूर्तियां बनाई और बेची जाती थीं।

पति की मौत के बाद संभाला काम

सबकुछ अच्छा चल रहा था लेकिन साल 2012 में वक़्त ने ऐसी पलटी मारी की ज़िंदगी ही बदल गई। बाबू दा का अचानक निधन हो गया। ऐसा लगा जैसे सबकुछ बिखर गया हो। काम-धंधा बंद हो गया। आमदनी का ज़रिया रूक गया। साथी कारीगर भी दूसरी जगह चले गए। माधवी के सामने परिवार चलाने का संकट था। पति की मौत के सदमे को पीछे छोड़ उन्होंने एक बड़ा फ़ैसला किया। उन्होंने तय किया कि वो अपने पति बाबू लाल की परंपरा को आगे बढ़ाएंगी, ख़ुद मूर्तियां बनाएंगी। अब तक माधवी ने मूर्तियां बनाई नहीं थी, कभी बनाई भी तो उस लिहाज से नहीं जिसे बेचा जा सके। ये काम आसान बिल्कुल नहीं था। अलग-अलग भगवानों की मूर्तियां, अलग-अलग हाव-भाव, भंगिमाओं वाली मूर्तियां, अलग-अलग आकारों वाली मूर्तियां। माधवी ने भले मूर्तियां बनाई नहीं थी लेकिन वो सालों से मूर्तियां बनते देखती आ रही थीं। उन्हें पता था कि मूर्तियां बनाई कैसे जाती हैं, उसके लिए क्या तैयारी करनी पड़ती है, कैसे उन्हें आकार दिया जाता है। अपनी हिम्मत के दम पर माधवी जल्द ही मूर्तिकला में पारंगत हो गईं।

ऑर्डर मिलने में आई परेशानी

पहले बाबू दा के नाम पर दूर-दूर से ख़रीदार मूर्तियां बनवाने आते थे। उनके साथ कई अच्छे कारीगर भी थे। लेकिन बाबू दा के निधन के बाद हालात बदल गए। जो लोग पहले मूर्तियां बनवाने आते थे उन्होंने दूसरे कलाकारों से मूर्तियां बनवानी शुरू कर दी। इससे माधवी के लिए चुनौती और बड़ी हो गई। वो मूर्तियां तो बनाने लगीं थी लेकिन उसके ख़रीददार भी तो मिलने चाहिए। इसलिए पहले उन्होंने छोटी मूर्तियों से शुरुआत की। कुछ लोगों ने हौसला बढ़ाने के लिए बड़ी मूर्तियों के भी ऑर्डर दिये। धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी। केवल 2 साल में माधवी ने अपने साथ 6 कारीगरों को जोड़ लिया। उन्होंने रांची के कोकर में अपनी वर्कशॉप तैयार की। अब सारी मूर्तियां वहीं बनाई जाने लगीं।

10 साल से जारी है सफर

माधवी पिछले 10 साल से लगातार मूर्तियां बना रही हैं। अब लोग उन्हें केवल बाबू दा के नाम से नहीं जानते, बल्कि उनकी बनाई सुंदर-शानदार मूर्तियों की वजह से पहचानते हैं। दुर्गा पूजा में हर साल उन्हें 20-25 मूर्तियों के ऑर्डर मिल जाते हैं। इसके अलावा दूसरे त्योहारों के लिए भी वो मूर्तियां बनाती हैं। माधवी इस काम को अपनी आख़िरी सांस तक करना चाहती हैं।

बच्चों को दी अच्छी शिक्षा

माधवी ने तमाम संघर्ष के बाद भी अपने बच्चों की शिक्षा में कोई कमी नहीं आने दी। उन्होंने अपने दोनों बच्चों को इंजीनियर बनाया है। बेटा रांची में ही एक कंपनी में काम कर रहा है तो बेटी बैंगलुरु में। माधवी अपने दम पर घर के कामकाज से लेकर वर्कशॉप तक मैनेज करती हैं।

माधवी का ये संघर्ष और उससे हासिल ये उपलब्धि एक मिसाल है। जीवन जीने के जज़्बे का संदेश है।