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बंदे में है दम

महिलाओं को बदलाव का रास्ता दिखा रही हैं पूजा

ना केवल ख़ुद एक शुरुआत करना बल्कि औरों को भी अपने साथ जोड़ना, उन्हें आगे बढ़ाने वाला ही पथ प्रदर्शक होता है। बिहार की रहने वाली पूजा सिंह पिछले 13 सालों से इस काम में जुटी हुई हैं। उन्होंने ना केवल अपने भविष्य को संवारा बल्कि हज़ारों ऐसी महिलाओं को दिशा दिखा रही हैं जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। पूजा का जीवन, उनका संघर्ष हमें ये भी बताता है कि अगर पढ़े-लिखे युवा अपने समाज को साथ लेकर आगे बढ़ेंगे तो बदलाव ज़रूर आएगा। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट में कहानी पूजा सिंह की।

छोटे से गांव में बदलाव की ज्योति

बिहार के समस्तीपुर ज़िले में बसा है एक मोहिउद्दीन नगर। साल 2009 में यहां के सिवैसिंगपुर में एक बदलाव की नींव पड़ी जब फैशन डिज़ाइनिंग की पढ़ाई कर चुकी पूजा सिंह ने एक बिल्कुल नए और अनूठे काम की शुरुआत की। ये काम था केले के थंब से रेशे निकालकर उनसे कपड़ा और दूसरे उत्पाद बनाने का। यूं तो बिहार में केले का ख़ूब उत्पादन होता है लेकिन उससे सिर्फ़ फल लिये जाते थे लेकिन पूजा ने बड़ी मात्रा में बेकार हो जाने वाले केले के थंब के इस्तेमाल का एक नया आग़ाज़ कर दिया। पटना से स्कूली और कॉलेज की पढाई के बाद पूजा 1998 में दिल्ली चली गईं। वहां उन्होंने टेक्सटाइल डिज़ाइनिंग की पढ़ाई की। डीयू से रशियन लैंग्वेज का कोर्स भी किया। साल 2003 में वो खादी ग्रामोद्योग कमीशन में बतौर डिज़ाइनर चुनी गईं। इसके बाद वो लगातार खादी पर काम करती रहीं। क्रिएशन्स नाम की ख़ुद की कंपनी भी खोली। 2005 में पटना इंटरनेशनल ट्रेड फेयर में लगे उनके स्टॉल को पहला पुरस्कार हासिल हुआ। 2005 से 2009 तक वो बिहार में खादी से जुड़ी संस्थाओं के साथ काम करती रहीं।

नया सीखने की ललक ने बनाया अलग

पूजा हमेशा कुछ नया करना चाहती थीं। कुछ ऐसा जो औरों से अलग हो। इसके लिए वो हमेशा सीखने के लिए तैयार रहती हैं। सीखने की इसी ललक ने उन्हें 2010 में तमिलनाडु पहुंचा दिया। यहां उन्होंने केले के थंब से रेशे निकालकर उससे कपड़े तैयार करने का गुर सीखा। इसी दौरान उन्हें महसूस हुआ कि जिस बिहार में केले की इतने बड़े पैमाने पर खेती होती है और सारे के सारे केले के थंब सड़ जाते हैं वहां इस काम को क्यों ना किया जाए।

गांव की महिलाओं को साथ जोड़ा

बस फ़िर क्या था। तमिलनाडु से नई तकनीक और ज्ञान लेकर लौटी पूजा ने इसकी शुरुआत अपने गांव से कर दी। क़रीब सवा लाख के ख़र्च से केले के थंब से रेशा निकालने वाली मशीन लगाई। गांव की कई महिलाओं को इस मशीन की ट्रेनिंग दी। साथ ही थंब से निकलने वाले रेशे से कपड़ा तैयार करना भी सिखाया। उन्होंने अपने इस अभियान को ‘वन स्टेप विद नेचर’ का नाम दिया। जल्द ही यहां केले के रेशे से बने कपड़े से साड़ी, कुर्ता, चादर बनाने का काम शुरू हो गया। इसके साथ ही रेशे से कई सजावटी सामान, बैग, डोरमैट जैसी चीज़ें भी बनाई जाने लगीं। पूजा के साथ जुड़ने वाली महिलाओं के लिए ये काम बहुत फ़ायदेमंद साबित हुआ। बिहार सरकार ने इस काम को प्रोत्साहन देने के लिए इनके उत्पादों की ख़रीद शुरू कर दीं वहीं बाकी के प्रोडक्ट तमिलनाडु सप्लाई किये जाने लगे। धीरे-धीरे इन प्रोडक्ट्स की विदेश में भी मांग बढ़ने लगीं। पूजा से जुड़कर काम करने वाली महिलाओं के दिन बदल गए। जिनके लिए कभी सौ-दो सौ रुपये महीना कमाना भी बड़ी बात थी अब वो 4-5 हज़ार रुपये आसानी से कमा रही थीं।

बिहार के कई ज़िलों में ट्रेनिंग

ऐसा नहीं है कि पूजा ने इसे अपने तक ही सीमित रखा। उन्होंने अपने ज्ञान को ख़ूब बांटा। बिहार के समस्तीपुर, कटिहार, भागलपुर, खगड़िया जैसे ज़िलों की 20 हज़ार से भी ज़्यादा महिलाओं को केले के रेशे से कपड़ा बनाने की ट्रेनिंग दी। साल 2015 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पूजा को एंटरप्रेन्योर अवार्ड से सम्मानित भी किया।

पिछले 13 सालों से पूजा इस अभियान में जुटी हुई हैं। वो लगातार केले के रेशों से नए-नए प्रोडक्ट बनाने की कोशिश करती हैं। अपनी इस कोशिश, अपने इस अभियान से उन्होंने हज़ारों महिलाओं के जीवन को एक नई दिशा दी है।