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धरती से

एक थी रंगम्मा

अनाथ और अभावग्रस्त जीवन में फंसे इंसान को अगर किसी का साथ और आगे बढ़ने के मौक़े मिले तो कोई भी मानेगा कि उसे इससे ज़्यादा और कुछ नहीं चाहिए लेकिन, कुछ लोग बस इतने के लिए नहीं बने होते हैं। उन्हें और भी बहुत कुछ करना होता है, बहुत कुछ चाहिए होता है। रंगम्मा भी ऐसी ही थी। बस एक बात जो उन्हें औरों से कुछ अलग बना देती है वो ये कि रंगम्मा ने चाहा तो बहुत लेकिन कुछ भी अपने लिए नहीं।

ऐसा समर्पण की सबकुछ पाकर सब त्याग दिया

रंगम्मा का बचपन बेहद मुश्किलों भरा रहा था। वो अनाथ थीं। अनाथालय में बचपन बीत रहा था। इसी दौरान एक उद्योगपति ने उन्हें गोद लिया। अपने साथ तो नहीं रखा लेकिन पढ़ाई-लिखाई की पूरी व्यवस्था की। रंगम्मा बचपन से ही कलाकार थीं। हाथों में ब्रश पकड़ते ही कैनवस पर ऐसे रंग बिखरते थे कि बस देखने वाले हैरान रह जाते।

उनकी इस प्रतिभा को निखरने का मौक़ा भी मिला। देश के मशहूर आर्ट्स कॉलेज से पढ़ाई के बाद क़ामयाबी उनके क़दम चूम रही थी। अपने हुनर के दम पर वो ऐसा मुक़ाम हासिल कर चुकी थी जिससे आगे बस नाम और शोहरत थे लेकिन रंगम्मा की चाहत तो इन सबसे से बिल्कुल अलग थी। उन्हें ना तो नाम और शोहरत चाहिए थी, ना धन-दौलत। रंगम्मा ने एक ऐसा फ़ैसला लिया जो किसी क्रांति से कम नहीं था। रंगम्मा ने अच्छी कॉलोनियों के बजाए दिल्ली की नांगलोई की झुग्गियों को अपना बसेरा बनाया। वो जवाहर बाल भवन में काम करने लगीं। यहीं उन्होंने झुग्गी के बच्चों के लिए काम करना शुरू किया।

झुग्गियों के बच्चों की ज़िंदगी में भरे रंग

रंगम्मा ने अपनी कला का इस्तेमाल कर झुग्गियों के बच्चों की स्याह ज़िंदगी में रंग भर डाले। उन्होंने बस्ती में रहने वाले बच्चों को ड्राइंग-पेंटिंग सिखानी शुरू कर दी। शुरुआत में बच्चों के मां-बाप का बर्ताव रंगम्मा के लिए अच्छा नहीं रहा। कइयों ने बच्चों को भेजने से इनकार कर दिया तो कइयों ने उनके साथ बदसलूकी की लेकिन रंगम्मा ने हार नहीं मानी। वो लगी रही। नतीजा ये हुआ कि झुग्गी के जो बच्चे दिन-रात गंदगी में पड़े रहते थे, कई नशे में डूबे रहते थे, वो जवाहर बाल केंद्र से जुड़ गए। रंगम्मा उन बच्चों को तराशने में जुट गईं। तब रंगम्मा की तनख्वाह केवल दो सौ रुपये थी। ऐसे में रंगम्मा के लिए अपना गुजर-बसर करने के साथ-साथ बच्चों के लिए पेंटिंग के सामान ख़रीदने की भी चुनौती थी लेकिन कोई भी मुश्किल इतनी बड़ी नहीं थी कि वो रंगम्मा का रास्ता रोक सके।

रंगम्मा ने इन बच्चों को न सिर्फ एक नया जीवन दिया, बल्कि एक नयी सोच दी। स्वीपर का बेटा स्वीपर नहीं बनेगा, वो एक पेन्टर बनेगा। ये सोच थी रंगम्मा की। रंगम्मा की इसी सोच और मेहनत का नतीजा ये हुआ कि नांगलोई बाल केन्द्र पूरे देश में सबसे ज़्यादा अवॉर्ड जीतने वाला केंद्र बन गया।

रंगम्मा अकेली थी और हमेशा अकेली ही रहीं। रंगम्मा ने इन्हीं बच्चों को ही अपना परिवार माना। रंगम्मा को इसमें क़ामयाबी भी मिली। जिन अनगढ़ पत्थरों को रंगम्मा ने तराशना शुरू किया था वो आज चमकदार हीरे बन चुके हैं। देश-विदेश में नाम कमा रहे हैं। रंगम्मा के जीवन का संघर्ष उनकी अंतिम सांस तक चलता रहा। रंगम्मा को कैंसर हो गया था, वो डिप्रेशन की भी शिकार थी। शरीर काम करना बंद कर रहा था लेकिन उनका जज़्बा ना कभी हारा ना कभी थमा। वो बच्चों के लिए लगातार काम करती रहीं।

रंगम्मा के छात्र रहे केशव आज दिल्ली के एक स्कूल में आर्ट टीचर हैं। रंगम्मा को याद कर वो भावुक हो जाते हैं। केशव बताते हैं कि आज वो और उनके सैकड़ों साथी, जो कुछ भी हैं वो सिर्फ़ और सिर्फ़ रंगम्मा की वजह से ही हैं।

साल 2016 में वो इस दुनिया को छोड़कर चली गयी लेकिन आज भी उनके बिखेरे हुए रंग हज़ारों बच्चों की ज़िंदगी रंगीन बना रहे हैं।