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खेल की दुनिया

संघर्ष से शिखर तक पहुंचे रिंकू हुड्डा

जब वो हाथों में जैवलिन लेकर दौड़ते हैं तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं। सांसें थम जाती हैं जब गोली की रफ़्तार से निकल कर भाला आसमान को चीरता हुआ निकल जाता है और सबकी निगाहें टिक जाती हैं उस स्कोर बोर्ड पर जहां भारत का परचम लहरा रहा होता है। वो एक ऐसे हीरो हैं जो लड़ने का साहस देते हैं, ज़िंदगी की जंग लड़ने का जज़्बा देते हैं, हौसला देते हैं। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट की कहानी इसी हीरो की है। हम बात कर रहे हैं देश के सबसे कम उम्र के पैरा एथलीट रिंकू हुड्डा की।

मिसाल बन चुके हैं रिंकू

ट्यूनिशिया में आयोजित वर्ल्ड पैरा एथलेटिक्स ग्रांड प्रिक्स 2022 में रिंकू का फेंका गया भाला सीधे गोल्ड मैडल पर जाकर लगा। केवल 22 साल की उम्र में रिंकू हुड्डा ने देश के लिए सोना जीता है। इतने कम उम्र में रिंकू की ये क़ामयाबी बहुत बड़ी बात है। देश के लिए सम्मान की बात है। लेकिन इस क़ामयाबी के पीछे रिंकू का अदम्य साहस, हिम्मत और हौसला है।

हादसे ने बदली ज़िंदगी

साल 2000 में जन्मे रिंकू हुड्डा हरियाणा में रोहतक के धामड़ गांव के रहने वाले हैं। बचपन से ही पढ़ाई और खेल में अव्वल रहने वाले रिंकू की ज़िंदगी में उस समय दर्दनाक हादसा पेश आया जब वो केवल 3 साल के थे। साल 2003 की बात है। रिंकू का बायां हाथ एक पंखे की चपेट में आ गया। हाथ इतनी बुरी तरह जख़्मी हुई कि रिंकू को उसे गंवाना ही पड़ गया। इस हादसे ने रिंकू ही नहीं पूरे परिवार को हिला कर रख दिया। लेकिन ना रिंकू हारे, ना उनका परिवार। पहले से ही खेल में माहिर रिंकू ने अपने को इसी क्षेत्र में आगे बढ़ाया। शुरुआत दौड़ से की। फ़िर डिस्कस थ्रो, जैवलिन थ्रो और हाई जंप में ख़ुद को मजबूत बनाया।

जैवलिन के स्टार बने रिंकू

आगे चल कर रिंकू ने अपना पूरा ध्यान जैवलिन थ्रो पर लगाया। एक किसान पिता के बेटे रिंकू के लिए जैवलिन जैसा खेल बहुत महंगा था लेकिन रिंकू को घरवालों का पूरा साथ मिला। साल 2013 से रिंकू की ट्रेनिंग शुरू हुई और दो साल बाद साल 2015 में यूपी के ग़ाज़ियाबाद में आयोजित नेशनल टूर्नामेंट में सिल्वर मैडल जीत कर अपना खाता खोल लिया। इसके बाद साल 2016 में पंचकूला में हुए टूर्नामेंट में उन्होंने ब्रॉन्ज मैडल जीत लिया। उनका चयन स्विटज़रलैंड में होने वाले इंटरनेशनल टूर्नामेंट के लिए हो गया लेकिन उनके घरवालों के पास रिंकू को स्विटज़रलैंड भेजने के पैसे नहीं थे। लेकिन परिवार के पास हौसला और अपने बेटे पर पूरा भरोसा था। पिता ने डेढ लाख रुपये का कर्ज़ लिया और रिंकू को स्विटज़रलैंड भेज दिया। रिंकू ने स्विटज़रलैंड में ना केवल अपने देश का सम्मान बढ़ाया बल्कि गोल्ड मैडल जीत कर अपने पिता और परिवार का मान भी रखा। स्विटज़रलैंड में मिली इस ज़बरदस्त जीत ने रिंकू को पैरालंपिक का टिकट दे दिया। रिंकू पैरालंपिक खेलने वाले सबसे कम उम्र के खिलाड़ियों में शुमार हो गए।

परिवार और कोच का मिला साथ

रिंकू की इस क़ामयाबी के पीछे उनके परिवार भी है। शुरुआत से ही पूरे परिवार ने रिंकू की ना केवल हौसला आफ़जाई की बल्कि उनकी हर छोटी-बड़ी ज़रूरतों का ख़्याल रखा। रिंकू के पिता जहां हर मुश्किल, हर परेशानी का सामना करके भी रिंकू की ट्रेनिंग और उनके टूर्नामेंट के लिए पैसे जुटाते थे तो वहीं रिंकू के बड़े भाई अनुज हमेशा उनके साथ साये की तरह मौजूद रहते थे।

रिंकू को ट्रेनिंग के दौरान कोच का भी ख़ूब साथ मिला। राजीव गांधी स्टेडियम में सरकारी कोच अनूप से लेकर कोच से मार्गदर्शक तक की भूमिका निभा रहे जितेंद्र हुड्डा और ज्ञानेंद्र ने रिंकू को आगे बढ़ाने में पूरी मदद की। सोनीपत के साई सेंटर से मिली ट्रेनिंग भी रिंकू को पैरालंपिक तक पहुंचाने में बहुत काम आई।

दो बार पदक से चूके रिंकू

रिंकू ने 20वीं राष्ट्रीय पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 65.69 मीटर तक भाला फेंक कर अपने वर्ग में राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया। इसके साथ ही वो इस कटैगरी में दूसरे सर्वश्रेष्ठ जैवलिन थ्रोअर हैं। इस टूर्नामेंट में भी रिंकू ने गोल्ड मैडल जीता था हालांकि दो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में वो बहुत कम अंतर से पदक से चूक गए। साल 2016 में रियो पैरालंपिक और 2017 में लंदन में आयोजित विश्व चैंपियशिप में वो चौथे स्थान पर रहे। अब रिंकू ने ट्यूनिशिया में आयोजित वर्ल्ड पैरा एथलेटिक्स ग्रांड प्रिक्स 2022 में दिखा दिया है कि वो ना रूकने वाले हैं ना थकने वाले। उन्होंने 2024 के पेरिस पैरालंपिक में गोल्ड मैडल जीतने का सपना देखा है और हम सब यही दुआ करते हैं कि इतने संघर्ष के बाद जीत की राह में आगे बढ़ रहे रिंकू का हर सपना साकार हो।