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बंदे में है दम

बैगा चित्रकला की महारथी जोधइया

कला ना अमीरी-ग़रीबी देखती है और ना ही उम्र। किसी के हाथ में अगर कला है तो वो एक ना एक दिन ज़रूर निखरती-संवरती है। और फ़िर उसी दिन से उगता है बदलाव का सूरज। कुछ ऐसी ही कहानी है मध्यप्रदेश के उमरिया ज़िले की रहने वाली आदिवासी कलाकार जोधइया अम्मा की। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट पर कहानी आदिवासी कला को अंतरराष्ट्रीय पटल पर पहचान दिलाने वाली इसी कलाकार की।

पद्मश्री के लिए चयन

तकरीबन 84 साल की जोधइया बाई बैगा को इस साल पद्मश्री के लिए नामित किया गया है। पद्म पुरस्कार से पहले जोधइया बाई को तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से नारी शक्ति सम्मान भी मिल चुका है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी उन्हें सम्मानित कर चुके हैं। अनेक पुरस्कार और सम्मान हासिल कर चुकी जोधइया अम्मा की ये कला यात्रा आसान नहीं थी। बल्कि यूं कहें कि इस मक़ाम पर पहुंचने के बाद भी उनका संघर्ष जारी है।

हथौड़े से ब्रश तक का सफर

जोधइया अम्मा की केवल 14 साल की उम्र में शादी कर दी गई थी। दो बेटों के जन्म के बाद अचानक उनके पति का निधन हो गया। तब भी जोधइया गर्भवती थी। पति की मौत के बाद बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी पूरी तरह से जोधइया पर आ गई। गर्भवती जोधइया कुछ और काम तो जानती नहीं थी, तो मज़दूरी शुरू कर दी। इसी बीच उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया। जैसे-तैसे जोधइया अपना और अपने बच्चों का पेट पाल रही थी। कुछ दिनों बाद उन्होंने फ़िर से मज़दूरी शुरू की। अब अम्मा पत्थर तोड़ने का काम करने लगी। जो थोड़े-बहुत पैसे मिलते थे उससे गुजारा चल रहा था। बेटे बड़े हुए तो अम्मा का साथ देने लगे और इसी तरह से उनकी ज़िंदगी के 60 साल बीत गये। उनकी ज़िंदगी में बदलाव तब आया जब वो आशीष स्वामी से मिलीं। आशीष स्वामी मशहूर कलाकार थे। उमरिया में ही जन्मे आशीष ने विश्वभारती शांतिनिकेतन और जेएमई दिल्ली फाइन आर्ट्स की पढ़ाई की थी। आदिवासी कला में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उन्होंने जोधइया को पत्थर तोड़ने का काम छोड़ रंग और ब्रश पकड़ने की सलाह दी। अब आशीष उनके गुरू हो गये। आशीष स्वामी ने जोधइया को चित्रकारी सिखाई और उन्हें विलुप्त हो रही बैगा आदिवासी कला से जोड़ दिया।

बैगा कला और जोधइया की साधना

ऐसा नहीं था कि जोधइया ने केवल नाम के लिए चित्रकारी शुरू की थी। उम्र के इस पड़ाव पर भी वो बेहद तल्लीनता के साथ ब्रश और रंगों के इस्तेमाल को समझती गई। इसी का नतीजा है कि उन्होंने बैगा ट्राइबल आर्ट में एक नई जान फूंक दी। प्राचीन आदिवासी कला को नए रंगों के इस्तेमाल से एक नई ऊंचाई पर पहुंचा दिया। वो अपने आसपास की चीज़ों के देखकर उनकी पेंटिंग बनाया करती थी। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी चित्रकारी में आदिवासी देवलोक, भगवान शिव और बाघों पर आधारित पेंटिंग बनानी शुरू कर दी। पर्यावरण और वन्य जीवों पर भी उन्होंने कई सुंदर चित्र बनाये। बैगा जनजाति की संस्कृति पर आधारित उनके चित्रों को भी ख़ूब ख्याति मिली। उन्होंने अपनी कला में कई तरह के प्रयोग भी करने शुरू कर दिये। पहले वो मिट्टी की दिवारों पर चित्रकारी करती थी। फ़िर उन्होंने कागज और लकड़ी पर भी चित्र बनाये। उन्होंने लौकी और तोरई पर भी अपनी कला का जादू दिखाया।

जल्द ही उनकी पेटिंग राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रदर्शित होने लगी। शांति निकेतन विश्व भारती विश्वविद्यालय, दिल्ली स्थित नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में आयोजित कार्यक्रमों में उन्हें बुलाया जाने लगा। शामिल हुईं। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित जनजातीय संग्रहालय में उनके नाम की एक स्थाई दिवार है जहां उनके बनाये चित्र प्रदर्शित किये जाते हैं। जोधइया अम्मा की कला को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी ख़ूब सराहा गया है। बैगा जनजाति और आदिवासी संस्कृति पर बनाई उनकी तस्वीरों की प्रदर्शनी अमेरिका, जापान, इटली, फ्रांस और इंग्लैंड में लग चुकी है।

गुरू के गुजरने से लगा झटका

जोधइया अम्मा के जीवन और उनकी कला यात्रा को तब बड़ा झटका लगा जब कोरोना से उनके गुरू आशीष स्वामी का निधन हो गया। एक मज़दूर से मशहूर कलाकार तक के जोधइया के सफर में उनके गुरू आशीष स्वामी का बहुत बड़ा योगदान था। उनका निधन जोधइया के लिए बहुत बड़ा सदमा था लेकिन उन्होंने अपना सफर जारी रखा। अपने गुरू को श्रद्धांजलि देने का इससे बेहतर और कोई तरीका नहीं हो सकता था। अपने गुरू की याद में आयोजित कार्यक्रमों में जोधइया ज़रूर शामिल होती हैं।

नाम-सम्मान के बाद भी सिर पर छत नहीं

इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस कलाकार को नारी शक्ति सम्मान मिल चुका हो, राज्य और देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पटल पर सम्मान हासिल हो चुका हो और अब पद्मश्री मिलने जा रहा हो, उस कलाकार के सिर पर एक छत नहीं है। जोधइया का सामान्य जीवन आज भी मुफ़लिसी और तंगहाली में बितता है। वो एक झोपड़े में रहती हैं। कुछ सरकारी योजनाओं का लाभ ज़रूर मिल रहा है लेकिन अब तक आवास योजना का फायदा नहीं मिल पाया है। उन्होंने ख़ुद इसके लिए प्रधानमंत्री से निवेदन किया था। उम्मीद है केंद्र और राज्य की सरकार उनकी इस परेशानी को दूर करेंगी।

इतने संघर्षों के बाद भी जोधइया ने ना कभी हार मानी और ना ही कभी पीछे हटी। वो हमारे देश की आदिवासी कला को नया जीवन देने वाली हैं। ऐसी कलाकार को हमारा शत-शत नमन।