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बंदे में है दम

ज़रूरत है शुरुआत की

बदलाव के लिए ज़रूरत होती है एक शुरुआत की। बस एक उसी शुरुआत से बड़े से बड़ा बदलाव संभव हो पाता है लेकिन दिक़्क़त इसी बात की होती है कि उस शुरुआत को करने वाले बहुत कम होते हैं। आज इंडिया स्टोरी प्रोजेक्ट एक ऐसे शख़्स की कहानी लेकर आया है जिसने ऐसी एक नहीं कई शुरुआत कर बड़े बदलाव की शुरुआत की। हम जिनकी बात कर रहे हैं उनका नाम है मोहन सिंह नेगी। चमोली में ईरानी के ग्राम प्रधान रह चुके मोहन सिंह नेगी की दास्तां एक जिद की दास्तां है। ये जिद है अपने गांव, अपने इलाक़े के लिए काम करते रहने की। अपने इलाक़े की बेहतरी के लिए हर मुमकिन क़दम उठाने की।

बिरही-निजमुला में मोबाइल नेटवर्क

चमोली के बिरही-निजमुला घाटी में कई छोटे-छोटे गांव बसे हैं। दशोली ब्लॉक में बसे ये गांव ज़िला मुख्यालय से बहुत दूर बसे हैं। आने-जाने का रास्ता भी बेहद दुरूह। इतना दुरूह की सरकार की विकास योजनाएं भी यहां तक बहुत मुश्किल से पहुंच पाती हैं। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस इलाक़े में 2020 से पहले तक मोबाइल फ़ोन का नेटवर्क नहीं था। मोबाइल पास होने के बावजूद लोगों को बात करने के लिए कई किलोमीटर दूर जाना पड़ता था तब जाकर वो नेटवर्क के दायरे में आ पाते थे। कोरोना काल में ये समस्या और गंभीर हो गई। बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई मोबाइल नेटवर्क नहीं होने की वजह से बाधित होने लगी। ऐसे में गांव तक मोबाइल नेटवर्क लाने की कोशिशों में पहले से ही जुटे ईरानी ग्राम प्रधान मोहन सिंह नेगी और सक्रिय हो गए। ज़िले के अधिकारियों से लेकर नेताओं तक गांव की आवाज़ पहुंचाई। राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने समस्या को समझा और फ़िर जल्द ही उसका निवारण भी हुआ। आज़ादी के 73 साल बाद गांव में पहली बार फ़ोन की घंटी बजी।

50 साल पहले ध्वस्त झील को पुनर्जीवन

कहा जाता है कि आज़ादी से पहले ये इलाक़ा टूरिस्ट स्पॉट था। यहां 5 किलोमीटर लंबी एक सुंदर झील हुआ करती थी। आसपास अंग्रेज़ों के बनाए बंगले और कॉटेज थे। नैनी झील की ही तरह यहां भी बोटिंग हुआ करती थी। लेकिन ये झील साल 1970 में तबाह हो गई। बादल फटने से ये झील मलबों से भर गई। झील के पानी ने आसपास के बड़े इलाक़े में तबाही मचा दी। तब से ये झील इसी तरह मृत पड़ी रही। झील के ख़त्म होने से टूरिज़्म ख़त्म हो गया और इसके साथ ही ख़त्म हो गया इससे जुड़ा लोगों का रोज़गार। मोहन सिंह नेगी बचपन से इस झील की कहानी सुनते आए थे। ग्राम प्रधान बनने के बाद उन्होंने दुर्मी झील को पुनर्जीवीत करने का फ़ैसला किया। हालांकि कई बार सरकारी स्तर पर भी इस झील को ज़िंदा करने की बातें की जाती रहीं लेकिन कभी कोई ठोस क़दम नहीं उठाए गए। साल 2020 में मोहन सिंह नेगी ने अपने कुछ गांव के ही साथियों के साथ मिलकर झील की सफ़ाई शुरू कर दी। धीरे-धीरे ये सफ़ाई एक अभियान में बदल गई और झील का आकार दिखाई देने लगा। झील की सफ़ाई के दौरान मलबे में दबी अंग्रेज़ों के समय की एक नाव भी मोहन और उनके साथियों को मिली। मोहन सिंह और उनके साथियों के इस काम की चर्चा देहरादून तक पहुंची और फ़िर तत्कालीन मुख्यमंत्री ने दुर्मी झील के विकास की योजना पर मोहर लगा दी।

सड़क और पुल के लिए मशक्कत

चमोली का ये इलाक़ा सड़क से महरूम है। कोई बीमार पड़ जाए या कोई दूसरी आपात स्थिति हो जाए तो बाहर निकलना मुश्किल हो जाता था। कई बार सड़क के लिए काम शुरू हुए लेकिन वो आधे-अधूरे ही रह गए। यहां तक की भारी बारिश में नदियों पर बने छोटे-छोटे पुल भी टूट जाते हैं जो सालों-साल बन नहीं पाते। ऐसे में मोहन सिंह नेगी गांववालों के साथ मिलकर अस्थाई पुलों को निर्माण करते हैं। लकड़ी और बांस-बल्लियों की मदद से बने ये पुल गांववालों के लिए बहुत राहत लेकर आते हैं।

कोरोना काल में आगे बढ़ कर किया काम

कोरोना के समय मोहन सिंह नेगी घर पर बैठे नहीं रहे। हर गांव वाले को सरकारी सुविधाओं का लाभ दिलाने के लिए वो लगातार काम करते रहे। लोगों को राशन पहुंचाने से लेकर दवाओं का इंतज़ाम करने के लिए वो हमेशा आगे रहे।

आज भी वो इसी शिद्दत के साथ काम कर रहे हैं। गांव में सड़क, बिजली, पानी के लिए उनका संघर्ष जारी है।